Lekhika Ranchi

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शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की रचनाएंः देवदास--10


देवदास ःशरतचंद्र चट्टोपाध्याय
10

पार्वती ने आकर देखा, उसके स्वामी की बहुत बड़ी हवेली है। नये साहिबी फेशन की नही, पुराने ढंग की है। सदर-महल, अन्दर-महल, पूजा का दालान, नाट्‌य-मंदिर, अतिथिशाला, कचहरी घर, तोशाखाना और अनेक दास-दासियो को देखकर पार्वती आवाक्‌ रह गयी। उसने सुना था कि उसके स्वामी बड़े आदमी और जमीदार है। किंतु इतना नही सोचा था। अभाव केवल आदमियो का था, अर्थात्‌ आत्मीय कुटुम्ब-कुटुम्बिनी प्रायः कोई नही है। इतना बड़ा अन्तःपुर जन-शून्य था। पार्वती नववधू है, किन्तु एकदम गृहिणी हो बैठी। परछन करके घर मे लाने के लिए केवल एक बूढ़ी फूफी थी, इन्हे छोड़ सब दास-दासियो का दल था।

सन्ध्या के कुछ पहले एक सुन्दर सुकान्तिवान बीस वर्षीय नव युवक ने प्रणाम करके पार्वती के निकट खड़े होकर कहा - ‘मां, मै बड़ा लड़का हूं।’

पार्वती ने घूंघट के भीतर से ही देखा, कुछ कहा नही। उसने फिर एक बार प्रणाम करके कहा- ‘मां, मै आपका बड़ा लड़का हूं, प्रणाम करता हूं।’

पार्वती ने लंबे घूंघट को सिर पर उठा, मृदु कंठ से कहा- ‘यहां आओ भाई, यहां आओ।’

लड़के का नाम महेन्द्र है। वह कुछ देरी तक पार्वती के मुख की ओर अवाक्‌ होकर देखता रहा; फिर पास मे बैठकर विनीत स्वर मे कहा- ‘आज दो वर्ष हुए, मेरी मां का स्वर्गवास हो गया। इन दो वर्षों का समय हम लोगो का बड़े दुख और कष्ट से बीता है। आज तुम आयी हो, आर्शीवाद दो कि अब हम लोग सुख से रहे।’

पार्वती खुलकर सरल भाव से बातचीत करने लगी। क्योंकि एकबारगी गृहिणी होने से कितनी ही बातो को जानने ओर कितनी ही बार लोगो से बातचीत करने की जरूरत पड़ती है। किंतु यह कहना कितने ही लोगो को कुछ अस्वाभाविक जंचेगा, पर जिन्होने पार्वती के स्वभाव को अच्छी तरह से समझा है, वे देखेगे कि अवस्था के इन अनेक परिवर्तनो ने उनकी उम्र की अपेक्षा उसे कही अधिक परिपक्व बना दिया है। इसके अतिरिक्त निरर्थक लोक-लज्जा, अकारण जड़ता, संकोच उसमे कभी नही था। उसने पूछा- ‘हमारे और सब लड़के कहां है?’

महेन्द्र ने जरा हंसकर कहा- ‘तुम्हारी बड़ी लड़की- मेरी छोटी बहिन- अपनी ससुराल मे है, मैने उसके पास चिट्‌ठी लिखी थी, पर यशोदा किसी कारणवश नही आ सकी।’

पार्वती ने दुखित होकर पूछा- ‘आ नही सकी या स्वयं इच्छा से नही आयी?’

महेन्द्र ने लज्जित होकर कहा- ‘ठीक नही जानता, मां!’

किन्तु उसकी बात बात और मुख के भाव से पार्वती समझ गयी कि यशोदा क्रोध के कारण नही आयी है; कहा- ‘और हमारा छोड़ा लड़का?’

महेन्द्र ने कहा- ‘वह बहुत जल्दी आयेगा, कलकत्ता मे परीक्षा देकर आयेगा।’

चौधरी महाशय स्वयं ही जमीदारी का काम देखते थे। इसे छोड़ वे नित्य शालिग्राम की बटिया की अपने हाथ से पूजा करते थे; अतिथिशाला मे जाकर साधु संन्यासियो की सेवा करते थे। इन सब कामो मे उनका सुबह से लेकर रात के दस-ग्यारह बजे तक का समय लग जाता था। नवीन विवाह के करने से किसी नवीन आमोद-प्रमोद के चिन्ह उनमे नही दिखायी पड़ते थे। रात मे किसी दिन भीतर आते और किसी दिन नही आ सकते थे। आते भी तो बहुत मामूली बातचीत होती थी। चारपाई पर सोकर एक गावतकिया लगाकर आंख मूंदते-मूंदते यदि बहुत कहते तो केवल यही कि ‘देखो, तुम्हीं घर की मालकिन हो, सब अच्छी तरह से देख-सुन के और समझ-बूझ के काम करना।’

पार्वती सिर हिलाकर कहती- ‘अच्छा!’

भुवन बाबू कहते-‘और देखो, ये लड़की-लड़के... हां, ये सब तो तुम्हारे ही है।’

स्वामी की लज्जा को देखकर पार्वती की आंख के कोने से हंसी फूट निकलती थी। वे भी थोड़ा हंसकर कहते-‘हां, और देखो, यह महेद्र तुम्हारा बड़ा लड़का है। अभी उस दिन बी.ए. पास हुआ है।

इसके समान अच्छा लड़का-इसके समान मोहब्बती-अहा इस...!’

पार्वती हंसी दबाकर कहती-‘मै जानती हूं, यह मेरा बड़ा लड़का है।’

यह तुम क्यो जानोगी। ऐसा लड़का कही भी नही देखने मे आया। और मेरी यशोमती लड़की नही, एकदम लक्ष्मी की प्रतिमा है। वह अवश्य आयेगी-क्या बूढ़े बाप को देखने नही आयेगी? उसके आने से....!’

पार्वती निकट आकर गंजे सिर पर अपने कमलवत कोमल हाथ को रखकर मृदु स्वर से कहती‘तुम को इसकी चिंता नही करनी होगी। यशोदा को बुलाने के लिए मै आदमी भेजूंगी, नही तो महेद्र खुद ही जायेगा।’

‘जायेगा! जायेगा! अच्छा, बहुत दिन बिना देखे हुए। तुम आदमी भेजोगी?’

‘जरूर भेजूंगी। मेरी लड़की है मै बुलवाऊंगी नही?’

वृद्ध इस समय उत्साहित हो उठ बैठते। परस्पर के संबंध को भूलकर पार्वती के सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद देते और कहते-‘तुम्हारा कल्याण हो! मै आशीर्वाद देता हूं, तुम सुखी हो, भगवान तुम्हे दीर्घायु करे!’

इसके बाद सहसा न जाने कौन-कौन सी बाते वृद्ध के मन मे उठने लगती थी। फिर चारपाई पर आंखे मूंदकर मन-ही-मन कहते-आह! वह मुझे बहुत ह्रश्वयार करती थी।

इसी समय कच्ची मूंछो के पास से बहकर एक बूंद आंख का आंसू तकिये पर गिर पड़ता। पार्वती पोछ देती थी। कभी-कभी वे भीतर-ही-भीतर कहते-‘अहा! उन सभी लोगो के आ जाने से एक बार फिर घर-द्वार जगमगा उठेगा...अहा! उन सभी लोगो के आ जाने से एक बार फिर घर द्वार जगमगा उठेगा...अहा! पहले कैसी चहल-पहल रहती थी। लड़का-लड़की, घर मे सब कोई थे, नित्य दुर्गोत्सव का आनंद रहता। फिर एक दिन सबका अंत हो गया। लड़के कलकत्ता चले गये, यशो को

उसके ससुर ले गये, फिर अंधकार, श्मशान....।’

इसी समय फिर मूंछो के दोनो ओर से आंसू बह-बहकर तकिये को भिगोने लगे। पार्वती कातर होकर आंसू पोछते-पोछते कहने लगी-‘महेद्र का क्यो नही विवाह किया?’

बूढ़े कहते-‘अहा, वह मेरे कैसे सुख का दिन होता! यही तो सोचता था। किंतु उसके मन की बात कौन जाने? उसकी जिद को कौन तोड़े? किसी तरह से ब्याह नही किया। इसीलिए तो बुढ़ापे मे...सारा घर भांय-भांय करता था, सारा घर दुखित था, लक्ष्मी को छोड़ दरिद्र का वास होने लगा था;

कोई घर में चिराग जलाने वाला नही रहा। यह सब देखा नही जाता था इसीलिए तो...।’

यह बात सुन पार्वती बड़ी दुखी होती। करूण-स्वर से, हंसी के साथ सिर हिलाकर कहती-‘तुम्हारे बूढ़े होने से मै शीघ्र ही बूढ़ी हो जाऊंगी। स्त्रियो को बूढ़ी होने मे क्या देरी लगती है?’

भुवन चौधरीजी उठकर बैठते; एक हाथ उसके चिबुक पर रखकर निःशब्द उसके मुख की ओर बहुत देर तक देखते रहते। जिस तरह कारीगर अपनी प्रतिमा को सजाकर, सिर मे मुकुट पहनाकर, दाहिने-बाएं घुमाकर बहुत देर तक देखता रहता है-फिर थोड़ा गर्व और अधिक स्नेह का भाव उत्पन्न होता है। ठीक उसी भांति भुवन बाबू को भी होता है। किसी दिन उनके अस्फुट मुख से बाहर निकल पड़ता-‘आहा!

अच्छा नही किया।’

‘क्या अच्छा नही किया?’

‘सोचता हूं, यहां पर तुम्हारी शोभा नही है।’

पार्वती हंसकर कहती-‘खूब शोभा है। हम लोगो कि क्या वृद्ध फिर लेटकर मन-ही-मन कहते-मै समझता हूं, वह मै समझता हूं। तब तुम्हारा भला हो। भगवान

तुम्हे देखेगे।

इसी भांति एक महीना बीत गया। बीच मे एक बार चक्रवर्ती महाशय कन्या को लेने आये थे। पार्वती अपनी इच्छा से नही गयी। पिता से कहा-‘बाबूजी, बड़ी कच्ची गृहस्थी है, कुछ दिन बाद जाऊंगी।’

वे भीतर-ही-भीतर हंसे और मन-ही-मन कहा स्त्रियो की जाति ही ऐसी है। वे चले गये, पार्वती ने महेद्र को बुलाकर कहा-‘भाई, एक बार मेरी बड़ी लड़की को बुला लाओ।’

महेद्र इधर-उधर करने लगा। वह जानता था कि यशोदा किसी तरह नही आयेगी। कहा-‘एक बार बाबूजी का जाना अच्छा होगा।’

‘छिः यह क्या अच्छा होगा? इससे तो अच्छा है कि हमीं मां-बेटे चलकर बुला लावे।’

महेद्र ने आश्चर्य से कहा-‘क्या तुम जाओगी?’

‘क्या नुकसान है? मुझको इसमे लज्जा नही है। मेरे जाने से अगर यशोदा आवे, अगर उसका क्रोध दूर हो जाये, तो मेरा जाना कौन कठिन है?’

अस्तु, महेद्र दूसरे ही दिन यशोदा को लाने गया। उसने वहां जाकर कौन-सा कौशल किया, यह मै नही जानता, किंतु चार ही दिन बाद यशोदा आ गयी। उस दिन पार्वती सारी देह मे विचित्र, नये और बहुत मूल्यवान गहने पहने थी। कुछ ही दिन हुए इन्हे भुवन बाबू ने कलकत्ता से मंगवा लिया था।

पार्वती आज वही सब गहने पहने हुए थी। रास्ते मे आते समय यशोदा बहुतेरी क्रोध और अभिमान की बातो को मन-ही-मन दुहरा रही थी। नयी बहू को देखकर वह एकदम अवाक्‌ हो गयी। कोई भी विद्वेष की बात उसके मन मे नही रही। केवल अस्फुट स्वर से कहा-‘यही!’

पार्वती यशोदा का हाथ पकड़ कर घर ले गयी। पास मे बैठकर एक पंखा हाथ मे लेकर कहा‘यशोदा, मां के ऊपर इतना क्रोध करना होता है?’

यशोदा का मुख लज्जा से लाल हो उठा। पार्वती तब सारे गहने एक-एक करके यशोदा के अंग मे पहनाने लगी। यशोदा ने विस्मित होकर पूछा-‘यह क्या?’

‘कुछ नही, सिर्फ मां की साथ।’

गहना पहनने से यशोदा का शरीर खिल उठा और पहन चुकने पर उसके अधर पर हंसी की रेखा दिखाई दी। सारे शरीर मे आभूषण पहनाकर निराभरण पार्वती ने कहा-‘यशोदा, मां के ऊपर भला क्रोध करना चाहिए?’

‘नही, नही क्रोध कैसा? क्रोध किस पर?’

‘सुनो यशोदा, यह तुम्हारे बाप का घर है; इतने बड़े मकान मे कितने ही दास-दासियो की जरूरत है।

मै भी तो एक दासी हूं। छिः बेटी, तुच्छ दासी के ऊपर इतना क्रोध करना क्या तुम्हे शोभा देता है?’

यशोदा अवस्था मे बड़ी है, किंतु बातचीत करने मे छोटी है। वह विह्वल हो गयी। पंखा हांकतेहां कते पार्वती ने फिर कहा-‘दुखी की लड़की को तुम लोगो की दया से यहां पर थोड़ा-सा स्थान मिला है; मै तो भी उन्ही मे से एक हूं। आश्रित....।’

यशोदा सब तल्लीन होकर सुनती रही। अब एकाएक आत्म-विस्मरण कर पांव के पास धप्‌ से गिरकर प्रणाम करके कहा-‘तुम्हारे पांच लगती हूं मां।’

दूसरे दिन महेद्र को अकेले मे बुलाकर कहा-‘क्यो, क्रोध कम हुआ?’

यशोदा ने भाई के पांच पर हाथ रखकर चटपट कहा-‘भैया, क्रोध के वश, छिः-छिः, कितनी ही बाते कही है, देखो वे सब प्रकट न होने पावे।’

महेद्र हंसने लगा। यशोदा ने कहा-‘अच्छा भैया, क्या कोई सौतेली मां इतना आदर-भाव करती रख सकती है?’

दो दिन बाद यशोदा ने पिता से आकर आप ही कहा-‘बाबूजी, वहां पर चिट्ठी लिख दो कि मै अभी और दो महीने यही पर रहूंगी।’

भुवन बाबू ने कुछ आश्चर्य से कहा-‘क्यो बेटी?’

यशोदा ने कहा-‘मेरी तबीयत कुछ अच्छी नही है, इसी से कुछ दिन छोटी मां के पास रहूंगी।’

आनंद से वृद्ध की आंखो मे आंसू उमड़ आये। संध्या को पार्वती को बुलाकर कहा-‘तुमने मुझे लज्जा से मुक्त कर दिया। जीती रहो, सुखी रहो!’

पार्वती ने कहा-‘वह क्या?’

‘वह क्या, यह तुम्हे नही समझा सकूंगा। नारायण ने आज कितनी ही लज्जा से मेरा उद्धार कर दिया।’

संध्या के अंधेरे मे पार्वती ने नहीं देखा कि उसके स्वामी की दोनो आंखे जल से डबडबा आयी है। और विनोद लाल-भुवन बाबू का छोटा लड़का, वह परीक्षा देकर घर आया, अभी तक पढ़ने ही न गया।

दो-तीन दिवस देवदास ने पागलो की भांति इधर-उधर घूम-घामकर बिताये। धर्मदास कुछ कहने गया तो उस पर आंखें लाल-लाल कर धमका के भगा दिया। उनका विकृत भाव देखकर चुन्नीलाल को भी कुछ कहने का साहस न हुआ। धर्मदास ने रोकर कहा-‘चुन्नी बाबू, देवदास ऐसे क्यो हो गये?’

चुन्नीलाल ने कहा-‘क्या हुआ धर्मदास?’

एक अंधे ने दूसरे अंधे से रास्ता पूछा। दोनो मे एक भी हृदय की नही जानते, आंखे पोछतेपोछते धर्मदास ने कहा-‘चुन्नी बाबू, जिस तरह से हो सके, देवदास को उनकी मां के पास पहुंचवाओ; अगर अब लिखे पढ़ेगे नही तो यहां रहने की जरूरत क्या?’

बात बहुत सच है। चुन्नीलाल सोचने लगे। चार-पांच दिन बाद एक दिन संध्या के ठीक उसी समय चुन्नी बाहर रहे थे। देवदास ने कही से आकर उनका हाथ थामकर कहा-‘चुन्नी बाबू, वही जाते हो?’

चुन्नी ने कुंठित होकर कहा-‘हां, नही कहो तो न जाऊं।’

देवदास ने कहा-‘नही, मै अपने को मना नही करता हूं; पर यह कहो, किस आशा से तुम वहां जाते हो?’

‘आशा क्या है? यो ही जी बहलाने को।’

‘जी बहलाने? मेरा तो जी नही बहला। मै भी जी बहलाना चाहता हूं।’

चुन्नी बाबू कुछ देर तक उनके मुख की ओर देखते रहे। संभवतः उनके मुख से उनके मन के भाव को जानने की चेष्टा करते थे। फिर कहा-‘देवदास, तुम्हे क्या हुआ है, साफ-साफ कहो?’

‘कुछ भी नही हुआ है।’

‘नही कहोगे?’

चुन्नीलाल ने बहुत देर बाद नीचा सिर किये हुए कहा-‘देवदास मेरी एक बात रखोगे?’

‘क्या?’

‘वहां पर तुमको एक बार और चलना होगा? मैने वचन दिया है।’

‘जहां उस दिन गया था?’

‘हां।’

‘वहां पर तुमको एक आर और चलना होगा? मैने वचन दिया है।’

‘जहां उस दिन गया था?’

‘हां।’

‘छिः! वहां मुझे अच्छा नही लगता।’

‘जिससे अच्छा लगेगा, मै वही करूंगा।’

देवदास अन्यमनस्क की भांति कुछ देर चुप रहे; फिर कहा-‘अच्छा चलो, मै चलूंगा।’

अवनति की एक सीढ़ी नीचे उतरकर चुन्नीलाल न जाने कहां चले गये। अकेले देवदास ही चंद्रमुखी के घर के नीचे के खंड मे बैठकर शराब पी रहे है। पास ही चंद्रमुखी विषण्ण-मुख से बैठी हुई देख रही है। उसने कहा-‘देवदास, अब मत पियो।’

देवदास ने शराब का ग्लास नीचे रखकर भौ चढ़ाकर कहा-‘क्यो?’

‘अभी थोड़े ही दिन से शराब नही पीता हूं। यहां रहने के लिए शराब पीता हूं।’

यह बात चंद्रमुखी कई बार सुन चुकी है। दो-एक बार उसने सोचा कि कही दीवाल से टकराकर वे लहू की नदी बहाकर मर न जाये। देवदास को वह ह्रश्वयार करती थी। देवदास ने शराब के ग्लास को ऊपर के उछाल दिया, कौच के पांव से लगकर चह चूर-चूर हो गया। फिर तकिये के सहारे लेटकर लड़खड़ाती हुई जबान से कहा-‘मुझमे उठने का बल नही है, इसी से यहां पड़ा रहता हूं, ज्ञान नही है, इसी से तुम्हारे मुख की ओर देखकर बात करता हूं, चंद...र...तब अज्ञानता नही रहती, थोड़ा-सा ज्ञान रहता है। तुम्हे छू नही सकता, मुझे बड़ी घृणा होती है।’

चंद्रमुखी आंख निकालकर धीरे-धीरे कहा-‘देवदास, यहां कितने ही आदमी आते है, किंतु वे लोग शराब छूते तक नही।’

देवदास आंख निकालकर उठ बैठे। कुछ झूमते हुए इधर-उधर हाथ फेककर कहा-‘छूते नही? मेरे पास बंदूक होती तो गोली मार देता वे लोग मुझसे भी अधिक पापिष्ठ है, चंद्रमुखी!’

कुछ देर सोचने लगे; फिर कहा-‘यदि कभी शराब का पीना छोड़ दूं-यद्यपि छोड़ूगा नही-तो फिर यहां कभी न आऊंगा। मुझे उपाय मालूम है; पर उन लोगो का क्या होगा?’

थोड़ा रूककर फिर कहने लगे-‘बड़े दुख से शराब को अपनाया है। मेरी विपद और दुख की साथिन! अब तुझे कभी नही छोड़ सकता।’ देवदास तकिये के ऊपर मुंह रगड़ने लगे। चंद्रमुखी ने चटपट पास आकर मुख उठा लिया। देवदास ने भौ चढ़ाकर कहा-‘छिः, छूना नही, अभी मुझमे ज्ञान है।

चंद्रमुखी, तुम नही जानती-केवल मै जानता हूं कि मै तुमसे कितनी घृणा करता हूं। सर्वदा घृणा करूंगा-तब भी आऊंगा, तब भी बैठूंगा, तब भी बाते करूंगा। इसे छोड़ दूसरा उपाय नही है। इसे क्या तुम लोग कोई समझ सकती हो? हा-हा! लोग पाप अंधेरे मे करते है, और मै यहां मतवाला हूं-ऐसा उपयुक्त स्थान जगत मे और कहां है? और तुम लोग....’

देवदास ने दृष्टि ठीक कर कुछ देर तक उसके विषण्ण मुख की ओर देखकर कहा-‘आहा! सहिष्णुता की प्रतिमूर्ति! लांछना, भर्त्सना, अपमान, अत्याचार, उपद्रव इस सबको स्त्री सह सकती है-तुम्ही इसका उदाहरण हो!’

फिर चित होकर गए धीरे-धीरे कहने लगे-‘चंद्रमुखी कहती है कि वह मुझे बहुत ह्रश्वयार करती है। मै यह नही चाहता-नही चाहता-नही चाहता-लोग थियेटर करते है, मुख में चूना और कालिख पोतते है भिक्षा मांगते है - राजा बनते है - ह्रश्वयार करते है, कितनी ही ह्रश्वयार की बाते करते है-कितना रोते है-मानो सब ठीक है, सत्य है! मेरी चंद्रमुखी थियेटर करती है, मै देखता हूं। किंतु वह जो बहुत याद आती है, क्षण भर मे सब हो गया। वह कहां चली गई-और किस रास्ते से मै आया हूं? अब एक सर्व जीवनव्यापी मस्त अभिनय आरंभ हुआ है, एक घोर तवाला-और यही एक-होने दो, हो-हर्ज क्या?

आशा नही, है वही भरोसा है-सुख भी नही, साध भी नही-वाह! बहुत अच्छा!’

इसके बाद देवदास करवट बदलकर न जाने क्यो बक-झक करने लगे। चंद्रमुखी उन्हे नही समझ सकी। थोड़ी देर मे देवदास सो गये। चंद्रमुखी उनके पास आकर बैठी। आंचल भिगोकर मुख पोछ दिया और भीगे हुए तकिये को बदल दिया। एक पंख लेकर कुछ देर हवा की, बहुत देर तक नीचा सिर किये बैठी रही। तब रात के एक बज गये थे, वह दीपक बुझा कर द्वार बंद कर दूसरे कमरे मे चली गयी।

दोनो भाई-द्विजदास और देवदास-तथा गांव के बहुत-से लोग जमीदार मुखोपाध्याय की अंतेष्टिक्रिया समाप्त कर घर लौट आये। द्विजदास चिल्ला-चिल्लाकर रोते-रोते पागल की भांति सो गये, गांव के पांच-पांच, छः-छः आदमी उनको पकड़कर रख नही सकते थे और देवदास शांत भाव से खंभे को पास बैठे थे। मुख मे एक शब्द नही था, आंखो मे एक बिंदु जल नही था, कोई उनको पकड़ने भी नही जाता था, कोई सान्त्वना भी नही देता था। केवल मधुसूदन घोष ने एक बार पास आकर कहा‘भाई, यह सब ईश्वर के अधीन की बात है। इसमे....।’

देवदास ने द्विजदास की ओर हाथ से दिखाकर कहा-‘वहां...’

घोष महाशय ने अप्रतिभ होकर कहा-‘हां-हां, उनको तो बहुत शोक...।’

इत्यादि कहते-कहते चले गये। और कोई पास नही आया। दोपहर बीतने पर देवदास मूर्च्छिता माता के पांव के पास जाकर बैठे। वहां पर बहुत-सी स्त्रियां उनको घेरकर बैठी थी। पार्वती की दादी भी उन्ही मे बैठी थी। टूटे-टूटे स्वर से शोकार्त विधवा माता से कहा-‘बहू, देखो, देवदास आया है।’

देवदास ने बुलाया-‘मां!’

उन्होने केवल एक बार देखकर कहा-‘देवदास!’ फिर डबडबायी हुई आंखो से झर-झर आंसू गिरने लगे। स्त्रियां भी चिल्ला उठी। देवदास कुछ देर तक माता के चरणाें मे अपना मुख ढके रहे, फिर उठकर चले गये-पिता के सोने के कमरे मे। आंखो मे जल नही था। मुख गंभीर तथा शांत था। लाल-लाल आंखो को ऊपर चढ़ाये हुए जाकर भूमि पर बैठ गये। उस मूर्ति को यदि कोई देखता तो संभवतः भयभीत हो जाता। दोनो कनपटियां फूली हुई थी। बड़े-बड़े रूखे केश ऊपर की ओर खड़े थे।

तपाये हुए सोने के समान शरीर का रंग काला पड़ गया। कलकत्ता के जघन्य अत्याचार मे रातो का दीर्घ जागरण हुआ था-और उस पर पिता की मृत्यु हुई। एक वर्ष पहले अगर उनको कोई देखे होता; तो संभवतः एकाएक को पहचान न सकता। कुछ देर के बाद पार्वती की माता उन्हे ढूंढती हुई दरवाजा ठेलकर भीतर आई और पुकारा-‘देवदास!’

‘क्या है छोटी चाची?’

‘ऐसा करने से तो नही चलेगा।’

देवदास ने उनके मुंह की ओर देखकर कहा-‘क्या करता हूं चाची?’

चाची सब समझती थी, किंतु कह नही सकी। देवदास के सिर पर हाथ फेरते-फेरते कहा-‘देवतामेरा!’

‘क्या चाची?’

‘देवता-’

इस बार देवदास ने उसकी गोद मे अपना मुख छिपा लिया, आंखो से दो बूंद गरम-गरम आंसू गिर पड़े।

शोकार्त परिवार की दिन भी किसी भांति बीता। नियमित रूप से प्रभावित हुआ, रोना-धोना बहुत कम हो गया। द्विजदास धीरे-धीरे अपने आपे मे आये। उनकी माता भी कुछ संभल कर बैठी। आंख पोछते पोछते आवश्यक काम करने लगी। दो दिन बाद द्विजदास ने देवदास को बुलाकर कहा-देवदास, पिता के श्राद्व-कर्म के लिए कितना रुपया खर्च करना उचित है?’

देवदास ने भाई के मुख की ओर देखकर कहा-‘जो आप उचित समझे, करे।’

‘नही भाई, केवल मेरे ही उचित समझने से काम नही चलेगा, अब तुम भी बड़े हुए तुम्हारी सम्मति भी लेना आवश्यक है।’

देवदास ने पूछा-‘कितना नकद रुपया है।’

‘बाबूजी की तहवील मे डेढ़ लाख रुपया जमा है। मेरी सम्मति से दस हजार रुपये खर्च काफी होगा, क्या कहते हो?’

‘मुझे कितना मिलेगा?’

द्विजदास ने कुछ इधर-उधर करके कहा-‘तुम्हे भी आधा मिलेगा, दस हजार खर्च होने से सत्तर हजार तुम्हे और सत्तर हजार मुझे मिलेगा।’

‘मां नकद रुपया लेकर क्या करेगी? वे तो घर की मालकिन ही है। हम लोग उनका खर्च संभालेगे।’

देवदास ने कुछ सोचकर कहा-‘मेरी सम्मति है कि आपके भग से पांच हजार रुपया खर्च हो और मेरे भाग से पच्चीस हजार रुपया खर्च हो, बाकी पच्चीस हजार मां के नाम जमा रहेगा। आपकी क्या सम्मति है?’

पहले द्विजदास कुछ लज्जित हुए। फिर कहा-‘अच्छी बात है। किंतु यह तो जानते ही हो कि मेरे स्त्रीपुत्र और कन्या है। उनके यज्ञोपवीत, विवाह आदि मे बहुत खर्च पड़ेगा। इसलिए यही सम्मति ठीक है।’

फिर कुछ ठहर कर कहा-‘तो क्या जरा-सी इसकी लिखा-पढ़ी कर दोगे?’

‘लिखने-पढ़ने का क्या काम है? यह काम अच्छा नही मालूम होगा। मेरी इच्छा है कि रुपये पैसे की बात इस समय छिपी-छिपाई रहे।’

‘तो अच्छी बात है; किंतु क्या जानते हो भाई...?’

‘अच्छा मै लिखे देता हूं।’ उसी दिन देवदास ने लिख-पढ़ दिया।

दूसरे दिन दोपहर के समय देवदास सीढ़ी से नीचे उतर रहे थे। बीच मे पार्वती को देखकर रुक गए।

पार्वती ने मुख की ओर देखा-देखकर पहचानते हुए उसे क्लेश हो रहा था। देवदास ने गंभीर और शांत मुख से आकर कहा-‘कब आयी पार्वती?’

वही कंठ-स्वर आज तन वर्ष बाद सुना। सिर नीचा किये हुए पार्वती ने कहा-‘आज सुबह आयी।’

‘बहुत दिन से भेट नही हुई अच्छी तरह से तो रही?’ पार्वती सिर नीचा किये रही।

‘चौधरी महाशय अच्छी तरह से है? लड़के-लड़की सब अच्छी तरह से है?’

‘सब अच्छी तरह से है।’ पार्वती ने एक बार मुख की ओर देखा, पर एक भी बात पूछ नही सकी वे कैसे है, क्या करते है, इत्यादि वह कुछ भी पूछ नही सकी।

देवदास ने पूछा-‘अभी तो यहां कुछ दिन रहना होगा?’

‘हां।’

‘तब फिर क्या’-कह कर देवदास चले।

श्राद्ध समाप्त हो गया। उसका वर्णन करने मे बहुत कुछ लिखना पड़ेगा, इसी से उसके कहने की आवश्यकता नही है। श्राद्ध के दूसरे दिन पार्वती ने धर्मदास को अकेले मे बुलाकर उसके हाथ मे एक सोने का हार देकर कहा-‘धर्म, अपनी कन्या को यह पहना देना।’

धर्मदास ने मुंह की ओर देखकर आर्द्र नेत्र और करूण कंठ-स्वर से कहा-‘अहा! तुमको बहुत दिनो से नही देखा, सब कुशल तो है?’

‘सब कुशल है। तुम्हारी लड़की-लड़के तो अच्छे है?’

‘हां पत्ताें, सब अच्छे हैं।’

‘तुम अच्छे हो?’

इस बार दीर्घ निःश्वास खीचकर धर्मदास ने कहा-‘क्या अच्छा हूं? अब यह जीवन भार-सा मालूम होता है-मालिक ही चले गये...।’ धर्मदास शोक के आवेग मे कुछ और कहना चाहता था, किंतु पार्वती ने बाधा दी। इस सब बातो को सुनने के लिए उसने हार नही दिया था।

पार्वती ने कहा-‘यह क्यो धर्मदास, तुम्हारे जाने से देव दादा को कौन देखेगा?’

धर्मदास ने माथा ठोककर कहा-‘जब छोटे लड़के थे, तब देखने की जरूरत थी। अब नही देखने से ही अच्छा है।’

पार्वती ने और पास आकर कहा-‘धर्म, एक बात सच-सच बताओगें?’

‘क्यो नही बताऊंगा, पत्तो?’

‘तब सच-सच कहो कि देवदास इस समय अभी क्या कर रहे है?’

‘मेरा सिर कर रहे है, और क्या करेगे?’

‘धर्मदास, साफ-साफ क्यो नही कहते?’

धर्मदास ने फिर सिर पीटकर कहा-‘साफ-साऊ क्या कहूं? भला यह कुछ कहने की बात है। अब मालिक नही है। देवदास के हाथ अगाध रुपया लग गया है, अब क्या रक्षा हो सकेगी?’

पार्वती का मुख एकबारगी मलिन पड़ गया। उसने आभास और संकेत से कुछ सुना था। दुखित होकर पूछा-‘क्या कहते हो धर्मदास?’ वह मनोरमा के पत्रो से जब कोई समाचार पाती थी तो उस पर विश्वास नही करती थी। धर्मदास सिर नीचा करके कहने लगा-‘खाना नही, पीना नही, सोना नही, केवल बोतल पर बोतल शराब, तीन-तीन, चार-चार दिन तक न जाने कहां रहते है, कुछ पता नही। कितने ही रुपये फूंक दिए। सुनता हूं, कई हजार रुपये का गहना बनवा दिया।’

पार्वती सिर से पैर तक सिहर उठी-‘धर्मदास, यह क्या कहते हो? क्या यह सब सच है?’

धर्मदास ने अपने मन मे ही कहा-शायद तुम्हारी बात सुने, तुम एक बार मनाकर देखो। कैसा शरीर था, कैसा हो गया? ऐसे असंयम और अत्याचार से कितने दिन जिएेंगे? किससे यह बात कहूं मां, बाप, भाई से ऐसी बात नही कही जाती। धर्मदास ने फिर सिर ठोक कर कहा-‘इच्छा होती है, जहर खाकर मर जाऊं पत्तों, अब आगे जीने की साध नही है।’

पार्वती उठकर चली गई। नारायण बाबू के मरने का समाचार पाकर वह चली आई थी। सोचा था, इस विपत्ति के समय देवदास के पास जाना आवश्यक है। किंतु उसके परमप्रिय देवदास की यह अवस्था है!

कितनी ही बाते उसके मन मे उठने लगी, जिनका अंत नही। जितना धिक्कार उसने देवदास को दिया, उसका हजार गुना अपने को दिया। हजार बार उसके मन मे उठा कि क्या उसके होने पर वह ऐसे बिगड़ सकते? पहले ही उसने अपने पांव मे आप कुठार मारा, किंतु वह कुठार उसके सिर पर गिरा। उसके देव दादा ऐसे हो रहे है।-इस प्रकार नष्ट हो रहे है, और वह दूसरे की गृहस्थी के बनाने मे लगी हुई है, दूसरे को अपना समझकर नित्य अन्न बांट रही है, और उसके सर्वस्व-आज भूखो मर रहे है! पार्वती ने प्रतिज्ञा की आज वह देवदास के पांव में माथा पटक कर प्राण त्याग देगी।

अभी भी संध्या होने मे कुछ देर है। पार्वती ने देवदास के कमरे मे प्रवेश किया। देवदास चारपाई पर बैठे हुए हिसाब देख रहे थे, इधर देखा-पार्वती धीरे-धीरे किवाड़ बंद कर फर्श पर बैठ गई। देवदास ने सिर उठाकर, हंसकर उसकी ओर देखा, उनका मुख विषण्ण, किंतु शांत था। हठात कौतुक से पूछा-‘यदि मै अपवाद उठाऊं तो?’

पार्वती ने अपनी सलज्ज, श्याम कमलवत दोनो आंखो से एक बार उनकी ओर देखा, फिर नजर नीची कर ली। देवदास की इस बात ने भली-भांति जता दिया कि वह बात उनके हृदय मे आजन्म के लिए अंकित हो गई है। वह देवदास से कितनी ही बाते कहने के लिए आयी थी, किंतु सब भूल गई, एक भी बात न कह सकी। देवदास ने फिर हंसकर कहा-‘समझता हूं, समझता हूं! लज्जा लगती है न?’ तब भी पार्वती कोई बात न कह सकी। देवदास ने कहा-‘इसमे लज्जा की क्या बात है? हम तुम दोनो ही लड़कपन मे बराबर एक साथ उठते-बैठते और खेलते थे। इसी बीच मे एक गड़बड़ी हो गई। क्रोध करके जो तुम्हारे जी मे आया कहा, और मैने भी तुम्हारे सिर मे यह दाग दे दिया। कैसा हुआ?’

देवदास की बात मे श्लेष व विद्रूप का लेश भी नही था; हंसते-ही-हंसते पहले की बीती दुख की कहानी कह सुनाई। पार्वती का हृदय भी सुनकर फटने लगा। मुंह मे आंचल देकर एक गहरी सांस खीचकर मन-ही-मन कहा-देव दादा, यह दाग ही मेरे ढाढस का कारण है, एकमात्र यही मेरा साथी है।

तुम मुझे ह्रश्वयार करते थे, इसी से दया करके, हम लोगो के बाल्य-इतिहास को इस रूप मे, इस ललाट मे अंकित कर दिया है। इससे मुझे लज्जा नही, कलंक नही, यह मेरे गौरव का चिह्न है।

‘पत्तो!’

मुख से आंचल न हटाकर ही पार्वती ने कहा-‘क्या?’

‘तुम्हारे ऊपर मुझे बड़ा क्रोध आता है।’

इस बार देवदास का कंठ-स्वर विकृत हो गया-‘बाबूजी नही है, आज मेरे विपत्ति का समय है, किंतु तुम्हारे रहने से कोई चिंता न रहती! बड़ी भाभी को जानती ही हो, भाई साहब का स्वभाव भी तुमसे कुछ छिपा नही है; और तुम्ही सोचो, मां को इस समय लेकर मै क्या करूं, और मेरा कुछ ठिकाना ही नही कि क्या होगा? तुम्हारे रहने से मै सब-कुछ तुम्हारे हाथ मे सौपकर निश्चिंत हो जाता-‘क्यो पत्तो?’

पार्वती फफककर रो पड़ी। देवदास ने कहा-‘रोती हो क्या? अब और कुछ नही कहूंगा।’

पार्वती ने आंख पोछते-पोछते कहा-‘पत्तो, अब तो तुम खूब पक्की घरनी हो गई हो न?’

घूंघट के भीतर-ही-भीतर होठ चबाकर, मन-ही-मन उसने कहा-घरनी क्या हुई हूं! क्या सेमल का फूल कभी देव-सेवा मे लगता है?

देवदास ने हंसते-हंसते कहा-‘बड़ी हंसी आती है! तुम कितनी छोटी थी और अब कितनी बड़ हो गर्इं। बड़ा मकान, बड़ी जमीदारी है, बड़े-बड़े लड़की-लड़के है और सबसे बड़े चौधरी जी, क्यो पत्तो?’

चौधरी जी पार्वती के लिए बड़ी हंसी की चीज है; उनके ध्यान मात्र आने से उसे हंसी आ जाती है।

इतने कष्ट मे भी इसी से उसे हंसी आ गई। देवदास ने बनावटी गंभीरता से कहा-‘क्या एक उपकार कर सकती हो?’

पार्वती ने मुख उठाकर कहा-‘क्या?’

‘तुम्हारे गांव मे कोई अच्छी लड़की मिल सकती है?’

पार्वती ने खांसकर कहा-‘अच्छी लड़की! क्या करोगे?’

‘मिलने पर विवाह करूंगा। एक बार गृहस्थी बनने की साध होती है।’

पार्वती ने गंभीरतापूर्वक पूछा-‘खूब सुंदरी न?’

‘हां, तुम्हारी तरह।’

‘और खूब शांत?’

‘नही, खूब शांत से काम नही है; वरन्‌ कुछ दुष्ट हो, तुम्हारी तरह मुझसे झगड़ा कर सके।’

पार्वती ने मन-ही-मन कहा-यह तो कोई नही कर सकेगी देव दादा, क्योकि इसके लिए मेरे समान प्रेम चाहिए। प्रकट मे कहा-‘मै अभागिन क्या हूं, मेरे ऐसी न जाने कितनी हजार तुम्हारे पांव की धूलि लेक अपने को धन्य मानेगी?’

देवदास ने मजाक से हंसकर कहा-‘क्या अभी एक ऐसी ला सकती हो?’

‘देव दादा, क्या सचमुच विवाह करोगे?’

‘वैसा ही, जैसा मैने बतलाया है।’

केवल यही खोलकर नही कहा कि उसे छोड़ इस संसार मे उनके जीवन की कोई सहवासिनी नही हो सकती!

‘देवदास, एक बात बताओगे?’

‘क्या?’

पार्वती ने अपने के बहुत संभालकर कहा-‘तुमने शराब पीना कैसे सीखा?’

देवदास ने हंसकर कहा-‘पीना भी क्या कही सीखना होता है?’

‘यह नही तो अभ्यास कैसे किया?’

‘किसने कहा-धर्मदास ने?’

‘कोई भी कहे; क्या यह बात सच है?’

देवदास ने छिपाया नही, कहा-‘कुछ है?’

पार्वती ने कुछ देर स्तब्ध रहने के बाद पूछा-‘और कितने हजार रुपये का गहना गढ़ा दिया है?’

देवदास ने गंभीरता से कहा-‘दिया नही है; गढ़ाकर रखा है। तुम लोगो?’

पार्वती ने हाथ फैलाकर कहा-‘दो, यह देखो, मुझ पर एक भी गहना नही है।’

‘चौधरी जी ने तुम्हे नही दिया?’

‘दिया था; पर मैने सब उनकी बड़ी लड़की को दे दिया।’

‘जान पड़ता है अब तुम्हे जरूरत नही है।’

पार्वती ने मुख हिलाकर सिर नीचा कर लिया। देवदास की आंखो मे आंसू भर आया। देवदास ने मन-ही-मन सोचा कि साधारण दुःख से स्त्रियां अपने गहने खोलकर नही देती। किंतु आंख से निकलते हुए आंसुओ को रोककर धीरे-धीरे कहा-‘झूठी बात है; किसी स्त्री से मैने प्रेम नही किया। किसी को मैने गहना नही दिया।’

पार्वती ने दीर्घ निःश्वास फेककर मन-ही-मन कहा-ऐसा ही मुझे भी विश्वास है।

कुछ देर तक दोनो ही चुप रहे। फिर पार्वती ने कहा-‘किंतु प्रतिज्ञा करो कि अब शराब नही पीऊंगा।’

‘यह नही कर सकता। तुम क्या प्रतिज्ञा कर सकती हो कि तुम मुझे भुला दोगी?’

पार्वती ने कुछ नही कहा। इसी समय बाहर से संध्या की शंख-ध्वनि हुई। देवदास ने खिड़की से बाहर देखकर कहा-‘संध्या हो गई है, अब घर जाओ पत्तो!’

‘मै नही जाऊंगी, तुम प्रतिज्ञा करो।’

‘क्यो, मै नही कर सकता।’

‘क्यो नही कर सकते?’

‘क्या सभी सब कामो को कर सकते है?’

‘इच्छा करने से अवश्य कर सकते है।’

‘तुम मेरे साथ आज रात मे भाग सकती हो?’

पार्वती का हृदय-स्पंदन सहसा बंद हो गया। अनजाने मे धीरे से निकल गया-‘यह क्या हो सकता है?’

देवदास ने जरा चारपाई के ऊपर बैठक कहा-‘पार्वती, किवाड़ खोल दो।’

देवदास खड़े होकर धीमे भाव से कहने लगे-‘पत्तो, क्या जोर देकर प्रतिज्ञा कराना अच्छा है? उससे क्या कोई विशेष लाभ है? आज की हुई प्रतिज्ञा कल शायद न रहेगी। क्यो मुझे झूठा बनाती हो?’

और भी कुछ क्षण यो ही निःशब्द बीत गये। इसी समय न जाने किस घर मे टन-टन करके नौ बजा।

देवदास भाव से कहने लगे-‘पत्तो, द्वार खोल दो।’ पार्वती ने कुछ नही कहा।

‘जा पत्तो!’

‘मै किसी तरह नही जाऊंगी।’-कहकर पार्वती अकस्मात पछाड़ खाकर गिर पड़ी। बहुत देर तक फूटफूटकर रोती रही। कमरे के भीतर इस समय गाढ़ा अन्धकार था, कुछ दिखायी नही पड़ता था। देवदास ने केवल अनुमान से समझा कि पार्वती जमीन मे पड़ी रो रही है, धीरे-धीरे बुलाया-‘पत्तो!’

‘देव दादा, मै मर भी जाऊंगी, किन्तु कभी तुम्हारी सेवा नही कर सकी, यह मेरे आजन्म की साध है।’

अंधेरे मे आंख पोछते-पोछते देवदास ने कहा-‘वह भी समय आयेगा।’

‘तब मेरे साथ चलो। यहां पर तुम्हे कोई देखने वाला नही है।’

‘तुम्हारे मकान पर चलूंगा तो खूब सेवा करोगी?’

‘यह मेरे बचपन की ही साध है। हे स्वर्ग के देवता! मेरी इस साध को पूर्ण करो इसके बाद यदि मर भी जाऊं तो भी दुख नही है।’

इस बार देवदास की आंखो मे पानी भर आया। पार्वती ने फिर कहा-‘देवदास, मेरे यहां चलो!’

देवदास ने आंखे पोछकर कहा-‘अच्छा चलूंगा।’

‘मेरे सिर पर हाथ रखकर कहो कि चलोगे।’

देवदास ने अनुमान से पार्वती का पांव छूकर कहा-‘यह बात मै कभी नही भूलूंगा। अगर मेरे जाने से ही तुम्हारा दुख दूर हो, तो मै अवश्य आऊंगा। मरने के पहले भी मुझे यह बात याद रहेगी।’


  


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